।।माँ-महामंत्र।।
'माँ' पर लिख सकूं, मेरी कलम में वो कूवत नहीं और न ही मेरे शब्दों में वो सामर्थ्य है, कि माँ को परिभाषित कर सकूँ। जब-जब माँ पर लिखने की सोचती हूँ, मेरे विचार बौने पड़ जाते हैं और भाव रुद्ध होकर बैठ जाते हैं। माँ ने हमें खुद लिखा है, पल पल रचा है। हम क्या खाकर माँ के बारे में लिखेंगे, क्या पाकर उसे साकार कर पाएंगे, क्या करके उस स्वरूप को जीवंत कर पाएंगे, जिसमें दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती तीनों देवियां एक साथ विराजती हैं। तैंतीस करोड़ देवी देवताओं की आराधना यदि आप एक साथ करना चाहते हैं, तो सिर्फ माँ की आराधना कर लीजिए। उसकी आराधना से आपको चारों धाम की तीर्थ यात्रा करने का पुण्य मिल जाएगा। तब मक्का मदीना जाए बिना ही आप हाज़ी बन जाएंगे।
यही अमरनाथ है, यही केदारनाथ, बद्रीनाथ का द्वार भी यही है और रामेश्वरम का पाट भी यही है, जगन्नाथ का ठाठ भी तो यही माँ है।
जानती हूँ, धृष्टता कर रही हूँ, पर मन मजबूर कर रहा है कहने को, क्योंकि यही चिरंतन सत्य भी है- छोड़ो मंदिर की देहरियों को, कुछ नहीं रखा है मस्जिद की मीनारों में, गिरजे के घंटे भी व्यर्थ हैं, यदि आपकी माँ ही आपसे रुष्ट है।
"तेरे दूध का हक़ मुझसे अदा कभी न होगा।
तू है नाराज़ तो खुश मुझसे खुदा क्या होगा।।"
मैंने कब मना किया, कि आप दीन दुखियों की सेवा न करें, आहतों को राहत न पहुँचाएं, रोगियों को आरोग्य प्रदान न करें, वृक्षों को न संभालें, धरती को न सँवारे, जीव जंतुओं की दुर्लभ प्रजातियों को न बचाएँ, पर्यावरण संरक्षण के लिए न लड़े, अपनी संस्कृति पर न मर मिटें, करें, खूब समाज सेवा करें, खूब देश सेवा करें, मानवता की सेवा में खुद को लगा दो, खपा दो, पर उस माँ का भी तो पता ले लो, जिसने जन्म दिया, पाला, पोषा और इस लायक बना दिया। मेरा तो स्पष्ट मानना है कि जो अपनी माँ का ही न हुआ, वह इस दुनिया में किसी का न हो सकेगा।
हम भलीभांति जानते हैं कि व्यक्ति पर तीन प्रकार के ऋण माने गए हैं- पितृ ऋण, ऋषि ऋण, और देव ऋण पर हमारे शास्त्रों में मातृऋण की तो कल्पना तक नहीं की गयी है, ये माँ ही है, जो बच्चे पर कोई बोझ डाल ही नहीं सकती। वह तो सदा अपने बच्चों को उऋण ही रखती है, उसे कुछ चाहिए ही नहीं। बस कोई उससे यह पूँछ भर ले-"माँ कैसी हो, कुछ चाहिए?" बस इस कुछ में ही वो सबकुछ पा जाती है। फिर भी यदि आप मानते हैं कि उसने हमको इस धरती पर उतार कर हम पर उपकार किया है, तो यह तय है कि हम अपने जीवन में तीनों (पितृ, ऋषि और देव) ऋणों से मुक्त हो सकते है, पर मातृऋण से मुक्त तो परमात्मा भी नहीं हुआ, तो हम तो कभी हो ही नहीं हो सकते।
माँ शब्द स्वयं में एक महामंत्र हैं। हर रोग का नाश कर सात्विकता जगाकर मुक्ति का मार्गदर्शक शब्द- 'माँ' शब्द सुनते ही ऐसा लगता है, मानो कहीं दूर से एक बादल का टुकड़ा उठा, बरसा, और भिगो गया इस जलती आत्मा को, चाहे कहीं भी, किसी भी कीचड़ में क्यों न पड़ी हो- हमारी वो आत्मा। एक ठंड सी पड़ जाती है, सुकून मिल जाता है। मुझे याद है, जब भी मेरी जिंदगी में कोई गम की आंधी चली, उसने अपना आँचल ओट किया और खुद थपेड़ों को सह लिया। माँ की महिमा कहाँ तक लिखूं। चारों वेद, अठारह पुराण और सभी शास्त्रों को कोई बस एक शब्द में लिखना चाहे तो, निश्चिंत होकर 'माँ' शब्द को लिख दे, उसके सारे संदर्भ-प्रसंग, आख्या-व्याख्या, सरलार्थ-लक्ष्यार्थ-गूढार्थ अपनी पूरी मीमांसा के साथ व्यक्त हो जाएंगे। किसी भाष्य, किसी ग्रंथ, किसी महाकाव्य में इससे ज्यादा उपयुक्त शब्द कोई और हो ही नहीं सकता।
"उलझनें मेरी उस क्षण बूझ गई,
जिस पल मुझे यह युक्ति सूझ गई।
दीन दुनिया के सारे समाधानों को,
बस मैं एक ही शब्द में पिरो लाई।
जिंदगी की कोरी पड़ी ज़िल्द पर,
मैं सिर्फ 'माँ' हर्फ़ को लिख आई।"
आज के मातृ दिवस पर बस एक ही बात कहना चाहूँगी। माँ, माँ होती है, उसकी कोई उपमा नहीं होती, कोई आकार प्रकार नहीं होता, माँ, माँ में भेद मत करो। चाहे वह आपकी हो या फिर इसकी, उसकी या किसी की भी। वह केवल माँ ही है। उसे टुकड़ों में मत बाँटो। उस पर लेबल चस्पा मत करो। सच कह रही हूँ। आज आपने मेरी इस बात का मर्म समझ लिया न, तो आप अपनी आने वाली पीढ़ी को एक ऐसा संस्कार दे जाएंगे, जो न केवल आपके भविष्य को सुखद बनाएगा, वरन परिवारों को, अंदर तक घर कर गई, कलह क्लेश से बचाकर, जीवन को स्नेह सिक्त शांति से भर देगा, क्योंकि माँ पूरी की पूरी उस एक ही रंग में रंग जाती है, जिस रंग से उसकी संतान की जिंदगी को रंगत मिलती है, चैन मिलता है।
"माँ खेत में हो, तब धानी हो जाती है और मंदिर में, सिंदूर सी हो जाती है।
माँ न हो तो सच कहूं, सबकुछ होते हुए भी, दुनिया अधूरी सी हो जाती है।"
इस मातृ दिवस पर हम माँ ओं को भी आत्मनिरीक्षण करना है। क्या हम मातृत्व के इस गुरुतर दायित्व को संभाल पा रहीं है, क्या इस शब्द को वो अर्थ, वो भाव, दे पा रहीं हैं, जो इस महिमामय शब्द से अपेक्षित है, क्या इसमें वो ऊँचाई बच पाई है, जो विशालकाय पर्वतों को सहर्ष झुकने पर विवश कर दे, क्या उसमें अब भी समंदर सी वो गहराई है, जो धरती की तमाम मलीनता को अपनी तहों में छिपाकर भी मुस्करा लेती है? एक बार सोचना जरूर.....!
डॉ. मधुगुप्ता
सह-आचार्य.
हिंदी विभाग,