'अंतर्राष्ट्रीय नर्स दिवस'
"आओ सबमिल इक दीप जलाएं,
सेवा सद्भावना का संसार बसाएं,
किसीको किसीसे न हो शिकवा ,
प्यार का इक ऐसा जहांन बनाएं।"
हम सब जानते हैं कि गंदगी और स्वास्थ्य का छत्तीस का आंकड़ा है। स्वस्थ रहना है, तो हाइजीन का बेहद ध्यान रखना है, पर क्या आप बता सकते हैं कि वो कौनसी हस्ती थी, जिसने यह बात दुनिया को समझाते समझाते अपनी ही हस्ती मिटा दी? हेल्थ केयर सिस्टम में आज साफ़-सफ़ाई पर, जो इतना ज़ोर दिया जाता है, वो किसकी देन है?
सोचो, सोचो.............................
.….........................................सोचो!!
चलिए, आपकी कुछ सहायता करती हूँ, उत्तर ढूंढने में- उसे 'लेडी ऑफ़ द लैम्प' के नाम से सारी दुनिया में जाना जाता है।
कुछ समझ आया? क्या कहा...? नहीं..... ।
तो चलो, एक क्लू और देती हूँ- उसका जन्म आज 12 मई के दिन, इटली के फ्लोरेंस शहर में हुआ। अब तो पता चल ही गया जनाब, बिल्कुल सही, वो थी- 'फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल'।
वो नोबल नर्सिंग सेवा की अधिष्ठात्री, प्रेम, दया व सेवा-भावना की प्रतिमूर्ति, आधुनिक नर्सिग आन्दोलन की जन्मदात्री मानी जाती हैं। ईश्वरीय प्रकाश की प्रतिनिधि यही फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल 1854 के क्रीमिया युद्ध के बाद संसार भर में "द लेडी विद लैंप" (दीपक वाली महिला) के नाम से प्रसिद्ध हो गई, क्योंकि रात रात भर जाग कर अंधरे में वे एक लैंप हाथ में लिए रोते कराहते सैनिकों की सेवा करती रहती थीं।
हर वर्ष 12 मई को फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल की जयंती पर 'अंतरराष्ट्रीय नर्स दिवस' का आयोजन किया जाता है।
एक उच्च, समृद्ध ब्रिटिश परिवार में जन्म लेने के बाद भी फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल ने लोगों की सेवा का मार्ग चुना था। फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने अपने मां-बाप से कहा, "ईश्वर ने मुझे आवाज़ देकर कहा कि तुम मेरी सेवा करो, लेकिन उस दैवीय आवाज़ ने यह नहीं बताया कि सेवा किस तरह से करनी है।" 1844 में फ्लोरेंस ने तय किया कि उसे नर्सिंग के पेशे में जाना है। लोगों की सेवा करनी है। इसलिए सन 1845 में परिवार के तमाम विरोधों व क्रोध के पश्चात् भी फ्लोरेंस ने सैलिसबरी में जाकर नर्सिंग ट्रेनिंग ली और अब फ़्लोरेन्स नाइटिंगेल ने अभावग्रस्त लोगों की सेवा का व्रत ग्रहण कर लिया। अगले कुछ दशकों मे फ्लोरेंस के काम की वजह से नर्सिंग के पेशे को काफ़ी सम्मान की नज़र से देखा जाने लगा। अस्पतालों में साफ़-सफ़ाई पर ज़ोर दिया जाने लगा। तमाम मुश्किलों के बावज़ूद वे अंत तक अपने इस निर्णय से बिल्कुल भी नहीं डिगीं।
डॉ. मधुगुप्ता,
सह आचार्य,
हिंदी विभाग।
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